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सोफी का संसार

जॉस्टिन गार्डर

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :456
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9717
आईएसबीएन :9788126729333

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प्रस्तावना

1980 के दशक के अन्तिम वर्षों का समय था। जॉस्टिन गार्डर ओस्लो, नॉर्वे के एक जूनियर कॉलेज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक थे। वह अपने दर्शन शिक्षण कार्य के प्रति सम्पूर्णतया समर्पित थे । किशोर छात्रों में दर्शन के अमूर्त प्रश्नों के प्रति बढ़ रही अरुचि और उदासीनता उनके लिए स्वाभाविक चिन्ता का विषय थी। एक दिन उन्होंने अपनी हताशा तथा उद्विग्नता के क्षणों में अपने छात्रों से प्रश्न किया कि वे क्या पढ़ना पसन्द करते हैं? छात्रों ने समवेत स्वर में उत्तर दिया कि उनका मन रहस्यमय उपन्यास (Mystery Novels) पढ़ने में लगता है। यह सुनकर निराश होने की अपेक्षा गार्डर ने तत्काल निश्चय किया कि एक रहस्यमय उपन्यास लिखकर वह अपने किशोर छात्रों में मानवीय जीवन से सम्बन्धित अपरिहार्य एवं गूढ़ प्रश्नों में रुचि जगाने का प्रयास करेंगे। उनकी मान्यता थी कि इन जटिल एवं अमूर्त दार्शनिक प्रश्नों की महत्ता को नकारने से तथा इनसे भागकर हम समृद्ध मानवीय विरासत में अपनी भागीदारी के दावे का अधिकार खो देते हैं।

इस तरह, गार्डर ने रहस्यात्मक उपन्यास 'सोफी का संसार' लिखकर पाश्चात्य दर्शन के विकास का सजीव चित्रण निहायत मौलिक रूप में प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास की रचना में उन्होंने जादुई कथा - संरचना, सांस्कृतिक इतिहास-लेखन तथा दार्शनिक चिन्तन की विधाओं का एक अद्भुत सर्जनात्मक संयोजन किया है। 'सोफी का संसार' के लेखन में गार्डर ने पाश्चात्य दर्शन के विकास के इतिहास के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों की चर्चा के माध्यम से विश्व, जीवन और मानवीय अस्तित्व से जुड़े रहस्यों पर अपनी गहन विवेचना को पाठकों के सम्मुख विचार हेतु प्रस्तुत किया है।

उपन्यास का प्रारम्भ विद्यालय से घर लौटने पर 14 वर्षीय सोफी को लेटर बॉक्स (पत्र - डिब्बे) में एक विचित्र रहस्यपूर्ण लिफाफा मिलने के साथ होता है जिसमें कागज के एक छोटे से पुर्जे (परची) पर उसके लिए एक निराला प्रश्न है : 'तुम कौन हो ?' 'सोफी' अथवा 'सोफिया' यूनानी भाषा का वह शब्द है जिसका प्रयोग पाश्चात्य दर्शन की प्रत्येक परिचयात्मक टैक्स्ट बुक (पाठ्यपुस्तक) में दर्शन की प्राथमिक परिभाषा या परिचय देने के लिए किया जाता है। 'फिलोसोफी' दो यूनानी शब्दों के योग से बना शब्द है । 'सोफी' का अर्थ है 'प्रज्ञा', 'बुद्धिमत्ता' (Wisdom) और 'फिलो' का अर्थ है : 'प्रेमी' (Lover)| सारांश यह कि 'फिलोसोफी' का अभिप्राय प्रज्ञा अथवा बुद्धिमत्ता से प्रेम है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि सोफी का संसार बुद्धिमत्ता और प्रज्ञा का संसार है और जिसे भी इस संसार से प्रेम है वह दार्शनिक (फिलॉस्फर) है । 'मैं कौन हूँ ?' प्रश्न का उत्तर आत्म-ज्ञान प्राप्त किए बिना सम्भव नहीं है । सोफी के लिए इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ना सरल तो नहीं लेकिन महत्त्वपूर्ण हो जाता है। उसे यह विलक्षण प्रतीत होता है कि वह यह भी नहीं जानती कि वह कौन है। इसी उधेड़बुन में वह फिर से बाहर लेटर बॉक्स को देखने जाती है और इस बार उसे अपने लिए एक और लिफाफा मिलता है जिसके भीतर एक छोटे पुर्जे पर एक नया प्रश्न है : "यह संसार कहाँ से आया?" जीवन में पहली बार सोफी को महसूस होने लगता है कि इन प्रश्नों का उत्तर खोजे बिना उसके लिए ज़िन्दा रहना उचित नहीं है। यह दो अजीब पत्र सोफी के लिए उसके पन्द्रहवें जन्मदिन के उपलक्ष्य में उपहार स्वरूप मिलनेवाले पत्रों की एक ऐसी श्रृंखला की शुरुआत है जो उसके जन्मदिवस तक निरन्तर चलती है ।

दर्शनशास्त्र के इतिहास पर इस पत्राचार पाठ्यक्रम का संचालन दर्शन के एक विचित्र रहस्यमयी शिक्षक द्वारा किया जाता है जिसका नाम एल्बर्टो नौक्स है। इस अजब पत्राचार पाठ्यक्रम में प्राचीन यूनानी दार्शनिकों द्वारा उठाए गए प्रश्नों और उनकी युक्तियों की चर्चा से प्रारम्भ करके बीसवीं शताब्दी के दार्शनिकों द्वारा विचारित समस्याओं तथा स्थापित सिद्धान्तों एवं तर्कों की सुस्पष्ट विवेचना की गई है। इस पुस्तक के हिन्दी भाषा में उपलब्ध होने से हिन्दी भाषी छात्रों तथा अध्यापकों के लिए पाश्चात्य दर्शन पर एक अत्यन्त रोचक और महत्त्वपूर्ण पुस्तक के माध्यम से मूलभूत दार्शनिक प्रश्नों और तर्कों के साथ एक विवेकपूर्ण साक्षात्कार का अवसर प्राप्त हो रहा है। हिन्दी भाषा में पाश्चात्य दर्शन पर सरल परन्तु विचारोत्तेजक पुस्तकों की कमी को देखते हुए इस पुस्तक को एक अद्वितीय प्रेरक कृति के रूप में पढ़ा जा सकता है।

अपनी विचार-विलास-क्रीड़ा में 'सोफी का संसार' जादुई अन्दाज के साथ दार्शनिकों द्वारा दी गई युक्तियों-प्रतियुक्तियों, संवाद-प्रतिसंवाद, तर्क-वितर्क का सुयोजित अन्वेषण, विश्लेषण तथा मूल्यांकन की गाथा है। इस पुस्तक में तीन विशिष्ट मानवीय क्षमताओं, स्मृति (इतिहास), कल्पना (गल्प) तथा विवेक (दर्शन) का ताना-बाना अनूठे ढंग से बुना गया है। यह उपन्यास पाठक को मानवीय जीवन के उद्देश्य और सार्थकता सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार करने की ललक को प्रोत्साहित करता है। पाश्चात्य जगत में विकसित दर्शन को सम्पूर्ण मानवीय बौद्धिक परम्पराओं का एक अंश स्वीकार करते हुए गार्डर यूरोपोन्मुखी व्याधि से अपने आपको मुक्त रखने के प्रयास में काफी हद तक सफल रहे हैं ।

'सोफी का संसार' हमें अपने विचार करने की क्षमता और महत्ता के प्रति अधिक सजग और संवेदनशील बनाने में सहायक है। ज्ञान, संस्कृति, नैतिकता, सौन्दर्यबोध सम्बन्धी पुराने और समकालीन विवादों की विवेचना, विशेषतया हमारे दैनिक जीवन के लिए उनकी प्रासंगिकता और सार्थकता को बड़े रोचक एवं सुबोधगम्य आख्यानों में प्रस्तुत किया गया है। इस उपन्यास की रहस्यात्मकता की विशिष्टता इसकी कथा की अद्भुत संरचना में है । कथानक की संरचना इस ढंग से विकसित की गई है कि पाठक के लिए कल्पित तथा वास्तविक संसार और चरित्रों में भेद करना आसान नहीं रहता।
 
प्रतीति और यथार्थ में भेद करने की कठिनाई को इस उपन्यास में दाशनिक चिन्तन और साहित्यिक सत्य के पारस्परिक जटिल सम्बन्धों की विवेचना करते हुए प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक से पहले बिल ड्यूरान्त द्वारा लिखित पुस्तक 'ए स्टोरी ऑफ फिलॉसफी' (दर्शन की कहानी) पाठकों में बहुत लोकप्रिय हुई थी। इस पुस्तक में उन्होंने चुनिन्दा दार्शनिकों की जीवनियों में से दिलचस्प हवाले लेकर दर्शन के इतिहास को एक कहानी की भाँति लिखने पर बल दिया था। तुलना में कहा जा सकता है कि जॉस्टिन गार्डर ने अस्तित्वात्मक तथा प्रत्ययात्मक स्तर पर प्रस्तुत जटिल उलझनों के मूल स्रोतों तथा दार्शनिक युक्तियों की तार्किक संरचनाओं को स्पष्ट करते हुए सुकरात पूर्व-चिन्तकों से लेकर बीसवीं शताब्दी के विख्यात दार्शनिक सार्त्र तक पाश्चात्य दर्शन की लम्बी यात्रा का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। इस वृत्तान्त से यह स्पष्ट होता है कि मानवीय परिस्थिति को बेहतर ढंग से समझने के लिए दार्शनिक चिन्तन में शामिल होने और बने रहने के लिए विचार-मीमांसा एक अनिवार्य बौद्धिक कर्म है ।

पिछले दो दशकों में मैंने इस पुस्तक के अंग्रेज़ी संस्करण का उपयोग अपने छात्रों के साथ दर्शन और साहित्य सम्बन्धी पाठ्यक्रमों में पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में किया है। मैं अपने उन सभी छात्रों का धन्यवाद करना चाहता हूँ जिन्होंने पुस्तक को न सिर्फ पूरी रुचि से पढ़ा बल्कि मुझे निरन्तर आश्वस्त किया कि उन्होंने इसे दार्शनिक अध्ययन और चिन्तन के लिए एक अत्यन्त उपयोगी प्रेरणा स्रोत पाया । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) द्वारा संचालित महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के लिए आयोजित ओरिएन्टेशन तथा रिफ्रेशर कोर्सों में भी दर्शन में रुचि लेने वाले विभिन्न विषयों के अध्यापकों के साथ समय-समय पर मुझे इस पुस्तक की चर्चा के अनेक अवसर निरन्तर प्राप्त हुए तथा मैंने उन्हें इसके पाठ की संस्तुति की। मानविकी विषयों तथा सामाजिक अध्ययनों के इन सभी विद्वानों से मुझे प्रायः जानकारी मिली कि इस पुस्तक को उन्होंने अपनी दर्शन- सम्बन्धी जिज्ञासाओं के समाधान के अतिरिक्त अपने विशिष्ट विषय को एक नई दृष्टि से उच्चतर गहन अध्ययन के लिए भी अत्यन्त उपयोगी पाया । विशेष धन्यवाद मेरे साथ मातृत्व और स्त्री-विमर्श पर कार्य कर रही शोध छात्रा ज़ैरूनिशा का जिसके साथ अनुवाद कार्य के समय अक्सर चर्चा का लाभ मिला-अनुवाद का शीर्षक भी उसी चर्चा का परिणाम है। मुझे आशा और विश्वास है कि प्रस्तुत अनुवाद हिन्दी माध्यम से दर्शनशास्त्र पढ़नेवाले छात्रों में पाश्चात्य दर्शन की सम्यक समझ विकसित करने के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

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